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Sunday 12 June 2016

जब बीजेपी की महिला मंत्री ने शूट करवाया हज़ारों सुअरों को

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नीलगायों की मौत पर ख़ूब हायतौबा मच रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल के दो केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और प्रकाश जावड़ेकर आमने-सामने हैं। मगर इससे पहले भी बीजेपी की सरकार ऐसे कारनामे कर चुकी है। 
बता दें कि मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार में कैबिनेट मंत्री और शिवपुरी विधानसभा से विधायक यशोधरा राजे सिंधिया के निर्देश पर नगर पालिका ने सुअरों को मारने के लिए बाक़ायदा निविदाएं (टेंडर) निकाले थे। जब कोई भी इन्हें मारने तैयार नहीं हुआ, तो मंत्री साहिब ने हैदराबाद के नवाब परिवार से ताल्लुक रखने वाले शफ़ाक़त अली को विशेष आग्रह पर बुलाया। 
सुअर मारने का नवाबी शौक़ रखने वाले शफ़ाक़त ने सैकड़ों सुअरों को पुराने राजा-महाराजाओं के शिकार की तर्ज़ पर मार डाला। बन्दूक से दनादन फ़ायर ठोके। निशाने पर थे केवल सुअर। लेकिन उस समय मेनका गांधी कुछ न बोलीं। मानो मुँह में दही जम गया हो। 
महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर
अब बेचारे पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर के पीछे पड़ीं हैं जिन्होंने पर्यावरण मंत्री होने के नाते बिहार को नीलगायों को मारने की अनुमति दी है। ख़ैर, शिवराज कबीना के मंत्रियों की अपनी अलग ठसक है। वे किसी की दखलंदाज़ी बर्दास्त नहीं करते। प्रदेश में पिछली बार वन मंत्री रहे सरताज सिंह से भी प्राणी प्रेमी मेनका गांधी की ठन चुकी थी।
बहरहाल, बताते हैं कि एक समय शिवपुरी में सुअरों का दुस्साहस इतना बढ़ गया था कि गली-कूचों से गुजरने पर बच्चों पर आक्रमण करने लगे थे। वहां के ताक़तवर राजा सिंधिया भी इन सुअरों के आगे बेबस नज़र हो गए।
ख़ास बात यह है कि अभी तो केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने बिहार में फसलों को नष्ट कर रहीं नीलगायों को मारने की केवल अनुमति दी है। लेकिन शिवपुरी नगरीय प्रशासन ने तो नवाब को 375 रुपए प्रति सूअर शूट आउट करने पर भुगतान किया। 
मध्यप्रदेश की उद्योग और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया
मारे गए सुअरों की संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि, नगर पालिका ने नवाब को वर्ष 2015 में 18 लाख रुपए का भुगतान किया। इसके अलावा नवाब और उनकी टीम इस साल भी को क़रीब-क़रीब 1000 से ज़्यादा सुअरों को निपटा चुकी है। इसके लिए नवाब को अब तक तक़रीबन 3-4 लाख का भुगतान किया जा चुका है. 
शिवपुरी में सुअरों को शूट करते हैदराबाद के नबाव 
यही नहीं, नगरपालिका और नवाब के बीच मरे हुए सूअरों की गिनती में गलतफहमी के चलते इंजीनियरों से सुअरों की गिनती कराई गई। इसके अलावा सुअर पालने वालों पर नगरीय प्रशासन धारा 188 के तहत मामले भी दर्ज़ करने लगा। इसके बाद पालक अपने सुअरों को रिश्तेदारों के यहां छोड़कर आने लगे। 

यूपी चुनाव-2017: टशन की राजनीति

''कार्यकर्ता, कोष और कार्यालय'' किसी भी संगठन का मुख्य आधार होते हैं. केंद्र में सत्तारूढ़ दल बीजेपी के पास अथाह-अपार कोष भी है. एक से एक लग्जरी कार्यालय भी हैं और कार्यकर्ता भी हैं. मग़र वे होते हुए भी नहीं हैं, क्योंकि वे संतुष्ट नहीं हैं. इसके चलते बीजेपी किसी भी क़ीमत पर यूपी में फ़तह हासिल नहीं कर सकेगी. जब तक सपा से बीजेपी के दिग्गज नेता गलबहियां करते रहेंगे, तब तक कुछ संभव नहीं. दरअसल, भयंकर वाली प्रतिद्वंदता राजनीति में दिखनी चाहिए, वरना कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है. हालांकि, कांग्रेस और भाजपा जैसी राजनैतिक पार्टियों का तुर्रा यह है कि 'सियासत में मतभेद होने चाहिए, मनभेद नहीं.' राजनैतिक शुचिता ज़रूरी है.
तुम शुचिता और सदाशयता में उलझे रहो. उधर बसपा सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग फिर शुरू हो गई. वे ब्राम्हण, बनिया, दलित, वंचित सबको साध कर चल रहीं हैं. सबसे ख़ास बात यह है कि, वो विपक्षियों से कट्टर दुश्मनी बनाकर रखती हैं और इसी से उनके कार्यकर्ताओं और जनता का जोश बढ़ता है. उसी जोश-खरोश में लोग वोट भी डाल आते हैं. अब बीजेपी वाले मुलायम के नाती-पोते की शादी में जाएंगे, मथुराकांड पर सीबीआई जांच नहीं बिठाएंगे, लखनऊ में मिलजुल कर मौज़ मनाएंगे, तो मायावती पक्की में बाज़ी मार रही हैं. मारेंगीं भी क्यों न ? आख़िर, कड़क मिज़ाज में भाषण जो देती हैं. सीधे टारगेट वाले. गुंडों को जेल भिजवाएंगे. लॉ एंड ऑर्डर सही तरीके से चलेगा. बाहुबलियों को जेल में ठुकवा देंगे. 
एक बार सपा की टोपी पहनकर एके-47 घर में रखने वाले संजय दत्त उर्फ मुन्नाभाई ने बोल दिया था कि, ''मैं मायवती को जादू की झप्पी देने आया हूं.'' संजू के बयान को ज़मीन पर गिरने में देरी नहीं हुई और इससे पहले मायावती ने बयान (लिखा हुआ पढ़कर) दे डाला कि, ''हम झप्पी-सप्पी नहीं देते, सीधे जेल में ठोक देते हैं.'' उसके बाद से कांग्रेसी नेता के पुत्र संजू बाबा ने मायानगरी खिसकने में ही भलाई समझी. ख़ैर, अब तो वह थोड़ा-सा 'रंग दे तू मोहे गेरूआ (भगवा)' गाने की लाइन पर चलने लगे हैं. उसी समय मुंह-ज़ुबान से शोलेयुक्त शब्द उगलने वाले आज़म खान ने जयाप्रदा, संजय दत्त समेत सपा में कुछ देर के लिए शामिल होने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों के बारे में कहा था कि, ''ये पूरी भांडों की नाटक मंडली है, जो हमेशा साथ चलती है.''
बहरहाल, इस मामले में बीजेपी में नितिन गड़करी ज़रूर दमदार हैं. उनकी तारीफ़ की जानी चाहिए. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से उनकी ऐसी ठनी कि आज तक दोनों में जबरदस्त ठनी ही है. बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी के बेटे की शादी में इंदौर के हलवाई बुलाने पर दिग्विजय ने चुटकी लेते हुए कहा था कि, गड़करी ने तीन दिन तक शादी समारोह आयोजित किया. हज़ारों लोग पहुंचे. वहीं, इंदौर के हलवाई ने प्रति व्यक्ति 800 रुपए प्लेट खाने के वसूले. गड़करी के पास इतना पैसा कहां से आया. इसके बाद उन्होंने गड़करी के आपूर्ति ग्रुप पर हमला बोला था. गड़करी सबसे ज़्यादा विवादास्पद बयानों के चलते ही विवादों में आए थे. उन्होंने भी दिग्गी राजा को ''दौ कौड़ी'' का आदमी कह दिया था. इसके जबाव में दिग्गी ने भी कहा- मैं दो कौड़ी का ही हूं, आख़िर मेरे पास नितिन गड़करी के बराबर माल कहां ? तभी से दोनों में अनबन है. इसके अलावा बीजेपी में मौज़ूदा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और तत्कालीन मध्य प्रदेश बीजेपी के मुखिया प्रभात झा जी ने भी आक्रामक राजनीति शुरू की। सीधे विपक्षी नेताओं पर कटाक्ष किये और तगड़े-तगड़े ज़ुबानी हमले भी बोले, लेकिन मिल-बाँट कर खाने वालों ने उन्हें भी किनारे लगा दिया। उधर, गडकरी भी दूसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते-बनते रुक गए। यानी बीजेपी ने ऐसे नेताओं को कुछ करने न दिया। 
उधर, कांग्रेसी दिग्गी राजा भी कार्यकर्ताओं के लिए भोपाल में सुरक्षाकर्मियों से भिड़ गए थे. वे भी व्यक्तिगत व सीधे टारगेट वाली खूंखार राजनीति करते हैं. दिग्विजय सिंह ने एक कार्यक्रम में यहां तक कह दिया कि, मध्य प्रदेश में एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं पर भाजपा सरकार ने जितने भी केस दर्ज किए हैं, वो केस कांग्रेस की सरकार बढ़ाने पर हटा लिए जाएंगे. ये होती है ज़मीन पर पकड़ बनाने की स्टाइल.

गुजरात दंगों के वक़्त मुख्यमंत्री मोदी ने पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के तत्कालीन सीएम दिग्गी राजा से पुलिस बल की मांग की थी, लेकिन कोइ मदद नहीं मिली. इस बात को ख़ुद मोदी जी ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला और दिग्विजय सिंह के सामने एक चैनल के कार्यक्रम में बोला था. एक बीजेपी कार्यकर्ता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि, जब ऐसा हो चुका था तो पीएम मोदी को दिग्विजय सिंह के बेटे की शादी में नहीं जाना था. इससे ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर ग़लत असर पड़ता है. वे विचारधारा और पार्टी को लेकर पड़ोसियों से, ट्रेन में बैठे यात्रियों से लड़ पड़ते हैं, उधर पार्टी का नेतृत्व विपक्षियों से यारना प्रदर्शित करने का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ता.
शायद ! इसीलिए अब उत्तप्रदेश मौजूदा पुत्तरप्रदेश सूबे की मुख्य गद्दी पर हवाई जहाज से सैंडिल मंगाने वाली मायावती के क़ाबिज़ होने की फिर से आहट सुनाई पड़ रही है. माया का सबसे मस्त फॉर्मूला यह है कि वो उपचुनाव नहीं लड़ती, क्योंकि भलीभंति जानती हैं कि सत्तारूढ़ दल ही उन चुनावों को जीतते हैं और इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बहुत ज़्यादा ही गिरता है. अब बसपा के सोशल इंजीनियर तैयार हैं. सीधे टारगेट वाले भाषण तैयार किए जा रहे हैं. गोलीमार बयान मायावती जी से दिलवाए जा रहे हैं. गांव-गली-कूचों और पान की गुमटियों पर पुराने शासनकाल की तरह लॉ एंड ऑर्डर को दुरुस्त करने की बातें करवाईं जा रही हैं.


अब कांग्रेस भी वैशाखी लेने यानी गठबंधन और हठबंधन मायावती से करने को तैयार है. सपा के दिन लद गए. बची बीजेपी. जो सबसे अलग खड़ी है विकल्प बनकर. मग़र फिलहाल तो हालत ये है कि घर में ही किचकिच मची है. गिनीज बुक ऐसे रिकॉर्ड दर्ज कर नहीं करती, वरना इतिहास में पहली बार किसी राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा की तरफ से सबसे ज़्यादा लोगों की दावेदारी का एक अनोखा रिकॉर्ड भी क़ायम हो जाता.
सोशल मीडिया कैंपेनर प्रशांत किशोर 
ख़ैर, अंत में भी यही कि देश के सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाले यानी समझो हर साल ऑस्ट्रेलिया जैसे देश की बराबर जनता पैदा करने वाला सूबा तब तक बीजेपी के कब्जे में नहीं आने वाला, जब तक कोई अच्छा चेहरा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया जाता और कार्यकर्ताओं को संतुष्ट नहीं किया जाता. हां, बीजेपी यहां हरियाणा जैसी इच्छा कतई न पाले, वरना बिहार जैसा हश्र होगा. हालांकि, वातावरण देखकर वोट देने वाले सबसे ज़्यादा वोटर तो अभी ‛तेल देखो-तेल की धार देखो’ वाली स्थिति में हैं।
- नीरज

Friday 10 June 2016

सलमान की सनक: अरिजीत सिंह और विवेक ऑबेरॉय की कसक


क़बर के बारे में कहा जाता है कि, वो जमुना किनारे सूर्य को अर्घ्य भी देता था और नमाज़ भी पढ़ता था। नाटे क़द का अक़बर राजनीति, कुशल रणनीति और विरोधियों को गिराने-उठाने में पारंगत था। कुछ इतिहासकार उसे पक्का नौटंकीबाज भी बताते हैं, बिल्कुल आजकल के नेताओं की तरह। मौज़ूदा दौर के नेता भी उसी तर्ज़ पर रहते हैं कि, ‛गंगा गए तो गंगादास, जमुना गए तो जमुनादास।’

ठीक इसी तर्ज़ पर अपने बॉलीवुड वाले सल्लू मियाँ उर्फ़ सलमान खान का काम है। मध्य प्रदेश की धरती पर जन्मने के बाद जीवन के 50 बसन्त देख चुके कथित कुंवारे सलमान खान को कुछ लोग मसीहा के रूप में प्रचारित करते हैं। कहते हैं कि सलमान भाई ने हिमेश रेशमियां, ऐश्वर्या, कटरीना, सूरज पंचोली, डेजी शाह....और न जाने किस-किस को सितारा बनाया। लेकिन वे लोग यह नहीं जानते कि सल्लू मियाँ अक़बर की तरह नौटंकी करने में महिर हैं। अब चाहे उसके पीछे किसी की भी सोच हो। इसका उदाहरण हम इससे समझ सकते हैं कि, जो हीरो अपनी हर फ़िल्म ईद पर रिलीज़ करता है; वो हर साल गणेश उत्सव भी प्रतीकात्मक तौर पर मनाता है। 

एक बार किसी मौलवी ने सलमान के घर होने वाली गणेश पूजा पर आपत्ति जताई तो उनके भाई अरबाज़ ने दो टूक कह दिया कि, ‛इस बार छोटे गणपति बिठाए हैं, अब अगली बार इससे बड़े विराजेंगे।' जबकि एक बार किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकार ने पूछ लिया-‛सलमान भाई, गणेश चतुर्थी और ईद के त्यौहार में महज़ कुछ दिनों का ही गैप है; तो आप चतुर्थी पर अपनी फ़िल्म रिलीज़ क्यों नहीं करते ? बस, इतना सुनते ही भाई ताव में आ गए और पत्रकार की हुज़्ज़त कर डाली। ये दोनों पहलू हैं भाई के।बहरहाल, इतना तय है कि बॉलीवुड में वन मैन आर्मी की तरह स्थापित इस व्यक्ति के पीछे एक बड़ी पत्रकारों, रणनीतिकारों और कानूनी सलाहकारों समेत बड़ी पीआर कंपनी की टीम काम करती है। उनके नाम यहां लिखना ठीक नहीं।ख़ैर, सल्लू मियाँ वन मैन आर्मी इसलिए हैं; क्योंकि वे किसी भी केस से बाल-बाल बच निकलते हैं। हर काम को हैंडल कर लेते हैं। फिल्मों में तो अपना अतिआत्मविश्वास वाली एक्टिंग दिखाते ही हैं। इसके अलावा हर किसी राजनीतिक पार्टी में उसकी ट्यूनिंग है। 
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देश के लड़के-लड़कियां तो क्या, नेता भी क़ुर्बान हैं सल्लू मियाँ पर । आख़िर, होंगे भी क्यों नहीं ? थोक वोट बैंक जो है हाथ में। जो सल्लू मियाँ कभी कांग्रेस के लिए रोड शो करते थे, वे मौक़ा पाते ही बीजेपी के कद्दावर नेता नरेंद्र मोदी के साथ पतंगबाज़ी करने लगे। शायद ! यही वजह थी कि वे कुछ प्रकरणों से बच निकले। इतनी बात इसलिए लिखनी पड़ रही है, क्योंकि जिस सलमान भाई को कूल डूड और हॉट बेबियां मसीहा, क्यूट, स्मार्ट और बलवान समझते हैं; वो अंदर उतना की चपल, चालक और चतुर है। यानी उतना ही बदमाश, तिकड़मी और भीतर से उतना ही कमज़ोर है। पचास बसन्त देख चुके उस कथित गबरू जवान ने अपनी सनक और सिर्फ सनक में कइयों का जीवन तबाह कर दिया। इसका मज़मून देखना हो तो कभी यूट्यूब पर जाओ और वहां आजतक चैनल के पत्रकार राहुल कंवल के साथ सलमान का एक साक्षात्कार देखो। समझ में आ जाएगा। वो इसलिए क्योंकि बन्दा पत्रकार को ही नहीं बख़्श रहा। जबकि उसका भाई शांत और सौम्य स्वभाव से उत्तर दे रहा था।
वाकई, ठीक इसी भांति उनका सिक्का बॉलीवुड में चलता है। उसने कई लोगों को मिटा दिया। शायद! यही वजह रही कि मांगलिक होने के बाद भी सलमान की भूतपूर्व प्रेमिका कही जाने वाली ऐश्वर्या ने इंडस्ट्री के महानायक के ‛लायक’ बेटे की बाहों में शरण ले ली। ख़ैर, अब वो भी ठहर सी गई हैं। एक्का-दुक्का फिल्मों में ही आ रहीं हैं। उस सल्लू मियाँ की सनक और रंजिश के चलते सुरेश ओबेरॉय जैसी हस्ती की उभरती प्रतिभा यानी विवेक ओबेरॉय का दम घुट गया। वो इसलिए कि ऐश्वर्या सलमान से तंग आकर विवेेक की गर्लफ्रेंड बन गईं थीं. अब सल्लू की दबंगई के चलते बॉलीवुड का कोई भी निर्माता- निर्देशक विवेक से ऐसे दूरी बनाये हुए है जैसे कहीं उससे संक्रमण फैलता हो। अब बारी आ गई ख्यात गायक अरिजीत सिंह सिंह के कैरियर तबाह होने की।
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दरअसल, नवोदित पार्श्व गायक अरिजीत सिंह सिंह ने मज़ाकिया लहज़े में एक मंच पर सलमान की बातों को बोरिंग और पकाऊ बोल दिया। बस, सल्लू मियाँ इसे दिल पे ले गए और अपनी कमिंग सून फ़िल्म ‛‛सुल्तान’’ से अरिजीत की आवाज़ में गाए गए ‛जग घुमया' गाने को उस्ताद राहत फ़तेह अली खाँ से गवा लिया।बहरहाल, ईद पर ग़रीब मुस्लिम नौजवानों के ख़ून-पसीने से कमाए गए रुपयों की बलि लेकर अपनी फ़िल्म हिट करवाने वाले सलमान भाई को इस बात का गुरूर है कि, उनके लाखों फेन-फॉलोवर्स हैं। जैसे साधु-सन्तों के भक्तों की वजह से नेता वोट के लालच में उनकी परिक्रमा करते हैं; ठीक उसी तरह सलमान को भी इसी बात की ग़फ़लत है कि, वोट बैंक की वज़ह से हर पार्टी उनको तबज़्ज़ो देती है। मग़र, घमण्ड, इगो और एटिट्यूड का अंत होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को लोकसभा चुनावों में फ़तह दिलाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले कैम्पैग्नेर प्रशांत किशोर को अमित शाह का एटिट्यूड रास न आया तो उन्होंने कुछ नहीं तो बीजेपी को बिहार हरवा दिया। ख़ैर, देखते हैं ये सल्लू मियाँ की हेंकड़ी कब तक बरक़रार रहती है। क्या कोई बॉलीवुड का प्रशांत किशोर इसको झुका पायेगा ? 

Wednesday 8 April 2015

तिब्बत की तड़प


भारत-तिब्बत समन्वय कार्यालय के समन्वयक श्री जिग्मे त्सुल्ट्रीम
भारत देश के शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में हमें यह तो पढ़ाया जाता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूूटान, म्यांमार, श्रीलंका हमारे पड़ोसी देश हैं, लेकिन यह कभी नहीं बताया जाता कि तिब्बत देश भी भारत का एक पड़ोसी देश है। ऐसे ही कुछ दर्द उभरकार सामने आया निर्वासित भारत-तिब्बत सरकार के समन्वयक श्री जिग्मे त्सल्ट्रीम का । श्री जिग्मे एक दिन के अल्प प्रवास पर भोपाल आये, जहां उन्होंने तिब्बत को लेकर  नीरज चौधरी से अपना दर्द सांझा किया। 

वे कहते हैं कि वर्ष 1959 में चीन ने तिब्बत को अपने कब्जे में लिया था। उस समय अनेकों तिब्बतियों ने अपना देश छोड़ दिया, जिन्हें निर्वासित तिब्बती कहा गया। डेमोग्रेफिक सर्वे के अनुसार 1 लाख 29 हजार निर्वासित तिब्बती हैं। उनमें से 92 हजार 480 के करीब भारत में और शेष नेपाल, भूटान तथा अमेरिका में रह रहे हैं। भारत में रहने वाले तिब्बतियों की निर्वासित सरकार की राजधानी हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है। 

चीन किस तरह तिब्बती बच्चों को भी नहीं बख्श रहा, इसका ताजा उदाहरण यह है कि शिक्षक नैनिहालों को अपने कमरे में बुलाते हैं और उनसे अंधेरे कमरे की ओर इशारा करके कहते हैं,-‘वहां, जाओ।’ अबोध बालक-बालिकाएं जब अंधेरे कक्ष में जाते हैं, तो उनसे पूछा जाता है-‘बताओ, यहां क्या दिख रहा है ?’ तब बच्चों का उत्तर होता है,-‘अंधेरा।’ शिक्षक फिर उन्हें बड़े प्यार से बोलता है कि, ‘ वहां कुछ दबाने की चीज़ है (उसे स्विच नहीं बताया जाता)..उसे दबाओ..और जब बच्चा ‘स्विच’ को दबाता है, तो पूरे कमरे में उजाला हो जाता है। कक्ष में रौशनी आते ही कोरे कागज़़ के दिल जैसा बच्चा ख़ुशी से उछल पड़ता है। फिर उसे समझाया जाता है कि, अपने घर जाकर माता-पिता से पूछना कि क्या उनके धर्मगुरु दलाई लामा के ज़माने में ऐसा होता था? क्या उनके राज्य के धर्मगुरुओं ने उन्हें विद्यालयों में पंखे-कूलर दिए थे? बच्चों, यह सब चीन की देन है। इन सब तथाकथित प्रगतिशील बातों से उन नैनिहालों के मस्तिष्क पर का गहरा प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार की घटना कोई भारत के स्कूल में नहीं, यह होता है चीन के कब्जे वाले तिब्बत में। वहां की बची हुई आबादी को किस प्रकार मैनुपुलेट कर चीन परस्त बनाया जाए और किस तरह से विगत सालों में तिब्बतियों को चीनी बना दिया जाए, ऐसे ही कुछ कुत्सित षड्यंत्र चीन की तरफ से जारी हैं। 
प्रदेश संवाददाता पत्रिका में प्रकाश‍ित साक्षात्कार


चीन की ओर से किए गए तिब्बत की जनता के जन-जीवन के विकास, शिक्षा, रोजगार की पोल खोलते हुए जिग्मे बताते हैं कि निर्वासित तिब्बतियों का साक्षरता प्रतिशत 85 फीसदी है और चीन के आधपित्य वाले तिब्बत में लोगों का साक्षरता प्रतिशत 25 से भी कम। इसके अलावा वहां तिब्बती को पांच युआन, तो वहीं चीनी व्यक्तियों को 30 युआन मजदूरी में मिलते हैं। यह कुछ नहीं, अरुणाचल प्रदेश तक के कई हिस्सों में चीनी रेडियो स्टेशनों से हिन्दी गाने बजाए जाते हैं, ताकि इन सटे हुए प्रदेशों की जनता को ‘मैनुपुलेट’ कर सकें। 
भारत-तिब्बत समन्वय कार्यालय में समन्वयक की भूमिका निभा रहे जिग्मे त्सल्ट्रीम ने चीन के कब्जे वाले तिब्बत की समस्याओं का जिक्र करते हुए बताया कि, तिब्बत की राजधानी ल्हासा में हम लोग अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं, क्योंकि चीन के वर्ष 1959 में आधिपत्य के समय से तिब्बत में चीनियों की संख्या काफी तादाद में बढ़ी है। हमारी सरकार के आंकड़ों की माने, तो 1.2 मिलियन तिब्बती हैं और चीन के मुताबिक 2.5 मिलियन तिब्बती वहां रह रहे हैं। सुनियोजित ढंग से दूसरी संस्कृति, भाषा, खान-पान के लोगों को तिब्बत में बसाकर जातीय तौर पर प्रहार हो रहा है, जो चिंता का विषय है। 

उन्होंने बताया, ब्रम्हपुत्र, इंडस, गंगा जैसे बहुत-सी नदियों का उद्गम तिब्बत से हो रहा है। वहां पर बिना किसी तरीके से अध्ययन करते हुए चीन बिजली उत्पादन के मद्देनजर बड़े-बड़े बांध बना रहा है। चीन अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए लगातार तिब्ब्त जैसे सुंदर जगह का शोषण करने पर तुला है। ब्रम्हपुत्र नदी तिब्बत से होते हुए असम, गोवा तक आती है, जिसके किनारे बसने वाले इंसानों का जीवन-यापन उसी नदी पर निर्भर है। किन्तु देखने में आ रहा है कि ब्रम्हपुत्र नदी पर चीन द्वारा बनाए गए बांधों से नदी किनारे बसी इंसानों की बसाहट का जीवन अस्त व्यस्त हो गया है। इसका कारण पूछने पर त्सुल्ट्रीम ने बताया, चीन जब चाहे तब बांधों से निर्बाध गति से पानी छोड़ता है, जिससे वहां बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं एवं कृषि-जीव-जन्तुओं पर असर पड़ता है और जब जरूरत पड़ती है तब बांधों से पानी छोड़ा नहीं जाता। तिब्बत में पैदा होने वाले खनिज पदार्थों मसलन, बॉक्साइट, कॉपर, मिनिरल्स का चीन बेहिसाब दोहन कर रहा है। इधर, तिब्बत के पश्चिमी क्षेत्र से वनों का कटाव करके चीन अपनी क्रूरतावादी नीतियों के कारण वहां नाश करने पर उतारू है। 
प्रदेश संवाददाता पत्रिका में प्रकाश‍ित साक्षात्कार


चीन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बैन

भौगोलिक और प्राकृतिक समस्या से इतर राजनैतिक समस्या पर भारत-तिब्बत समन्वयक जिग्मे त्सुल्ट्रीम ने पर चीन की तानाशाही का एक मजमून बताया। बकौल जिग्मे,-‘‘तिब्बत का आम नागरिक भी अगर दलाई लामा की तस्वीर अपने पास रखता है, तो उसे इस आरोप में जेल भेज दिया जाता है। जहां भारत में सुप्रीम कोर्ट ने भी आईटी एक्ट की धारा 66ए को रद्द कर दिया है यानि अब फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया पर अपने विचार बे-रोकटोक साझा किया जा सकता है, वहीं चीन और तिब्बत में इन सभी सोशल साइट्स के संचालन पर पाबंदी है। चीन में विबर मैसेंजर पर सरकार की पैनी नजर रहती है कि कौन, किससे, क्या बातें कर रहा है। इस बातों से पता चलता है कि चीन में किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बैन है।’’

तिब्बतियों की इस परिस्थितियों को जानते हुए भी क्या तिब्बत का अभिन्न मित्र भारत उसकी मदद नहीं रहा है ? इस सवाल के जवाब में जिग्मे कहते हैं कि यह मुद्दा काफी जटिल है। तिब्बत के मुद्दों की यथास्थिति को लेकर भारत सरकार के जेहन में सब कुछ है, पर भारत का चीन से वाणिज्यिक, आथर््िाक और राजनैतिक संबंध है। चीन की जीडीपी के ऊपर भारत भी अपनी बढ़ाना चाहता है। इसलिए भारत की भी कुछ मजबूरियां हैं। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि भारत निर्वासित तिब्बतियों या चीन आधिपत्य तिब्बत के विषय पर गंभीर न हो। 

श्री जिग्मे के मुताबिक, तमाम बिन्दुओं पर समय-समय हमें भारत का योगदान मिलता रहा है। मसलन, पिछले वर्ष सितंबर में चीन राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के वक्त भारत ने यह संकेत दिया था कि, चीन केवल उन मुद्दों पर फोकस करे जिनका भारत और चीन के साथ सीधा संबंध हो। मसलन, चीन से कोई जम्मू कश्मीर में यात्रा करना चाहता है तो वहां से स्टेपल (नत्थी)वीजा ले आता था हालांकि, भारत के कड़े विरोध के कारण यह बंद हो चुका। चीन भी विवादित विषय को प्रोपोगेट करता है और इसी निमित्त फरवरी में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अरुणाचल प्रदेश (ईटानगर) दौरे को लेकर चीन सरकार ने काफी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।  चीनी मीडिया भी कहता है कि भारत के प्रधानमंत्री का अरुणाचल दौरा संबंधों को आघात पहुंचा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का मई में चीन का दौरा है, इसके लिए भी चीनी मीडिया मोदी को सलाह दे रहा है। 
तिब्बत को राजनैतिक सपोर्ट की जरूरत 

जिग्मे त्सुल्ट्रीम ने भारत के सियासतदांओं को आगाह करते हुए कहा कि, तिब्बत से चीन के कब्जे के हटाने को लेकर 136 तिब्बती आत्मदाह  कर चुके हैं और इसी विस्तारवादी चीन ने तिब्बत के बाद भारत में भी समस्याएं पैदा करना शुरू कर दिया है। आग अभी आपके घर से दूर है, लेकिन सतर्क नहीं हुए तो यह आग आपके घर तक भी पहुंच जाएगी। इसलिए भारत की तरफ से तिब्बतियों को राजनैतिक सपोर्ट की जरूरत है। तिब्बती होने के नाते हमारी भरत सरकार से अपेक्षा हैं कि चीन के साथ हरेक क्षेत्र में रिश्ते बेहतर हों, पर तिब्बत के विषय को बिना सुलझाए सक्रिय -सक्षम कदम नहीं उठाएंगे, तब तक चीन इसी मार्ग से आपका ही फायदा उठाता रहेगा।
विदेश नीति को लेकर क्या भारत की नीति में खामियां हैं?, के विषय में जिग्मे का कहना है कि, ‘भारत की विदेश नीति पर दूरगामी दृष्टि नहीं हैं, यह कहना पूर्णत: सही नहीं है। इस प्रश्र को टालते हुए उन्होंने बताया भारत के अलावा तिब्बत को अभी यूरोपीय देशों जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, अमेरिका का समर्थन अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मिलता रहा है। मसलन, अमेरिका में मार्च की शुरुआत में वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के कड़े विरोध बावजूद सुबह का नाश्ता तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के साथ किया, क्योंकि मानवाधिकार को लेकर अमेरिका की नीति स्पष्ट है। 

अमेरिका में विभिन्न प्रकार के मानवों का इतिहास रहा है। इसलिए वे इसे नजरंदाज नहीं करेंगे। तिब्बतियों का समर्थन किस हद तक है, इसका उदाहरण देते हुए जिग्मे ने बताया कि नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित लोगों के कार्यक्रम में बुलाए गए दलाई लामा का साउथ अफ्रीका ने अंतिम समय में वीजा कैंसिल कर दिया था, जिसके कारण अन्य लोग भी कार्यक्रम में नहीं गए और दलाई लामा के सम्मान में कार्यक्रम केपटाउन के बजाय इटली के रोम में किया।

मौजूदा भारत सरकार की  नीति-नीयति सराहनीय

जिग्मे के मुताबिक, भारत का राजनैतक उद्देश्य भले ही कुछ हो, मगर जब कभी मैं भारत में इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) की बसों और कैंपों को देखता हूं, तो भारत सरकार गर्व होता है। अगर, भारत की नीयत-नीति साफ नहीं होती तो यहां की सरकारें भारत चीन सुरक्षा बल भी तो बना सकती थीं। उन्होंने बताया कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली से अरुणाचल के नाहरलागुन तक रेल को हरी झंडी दिखाकर चीन को कूटनीतिक जवाब दिया है, क्योंकि चीन ने भी सिक्किम के करीब तक रेल पटरियां बिछा दी हैं।

दलाई लामा में अटूट विश्वास
जिग्मे ने बताया कि प्रदेश के अमरावती जिले में 30वीं काल चक्र पूजा हुए थी। जिसमें 2-3 लाख तिब्बती सम्मिलित हुए थे। चूंकि समुद्र तल से तिब्बत 13 हजार फीट ऊंचा और 4 हजार फीट नीचाई में होने के कारण तिब्बत का वातावरण बहुत सर्द है और कुछ तिब्बती लामा इससे बचने चीते, तेंदुए की खाल का पहनावा पहनने लगे थे और उसे दिखावे के रूप में प्रदर्शित करते रहे हैं। इस पर कुछ लोगों ने प्रतिक्रियाएं दीं कि तिब्बती शो ऑफ करने कुछ गलत कार्य कर रहे हैं। काल चक्र पूजा के दौरान दलाई ने यह मुद्दा उठाया कि यह सब तिब्बती संस्कृति को दर्शाता नहीं है। धर्मगुरु लामा ने कहा कि, आप लोगों के कारण मैं शर्मिंदा हूं। जब यह संदेश तिब्बत गया तो सबने ऐसे पहनावे का बहिष्कार किया। ठीक उस प्रकार जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के समय जब भारत में गांधी की संदेश का इफेक्ट होता था। उक्त वाकया यह दर्शाता है कि दलाई लामा ही हमारे दार्शनिक, आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु हैं। हमारी मांगें हैं कि दलाई लामा दीर्घ आयु तक रहें, दलाई लामा को तिब्बत में आने दिया जाए और तिब्बत हमें वापस दिया जाए। हर वर्ग उम्र का यह मांग कर रहे हैं। इसको लेकर 136 लोग आत्महत्या कर चुके हैं।

पंडित नेहरू की नीति साफ थी
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू  की भूमिका पर जिग्मे त्सुल्ट्रीम का कहना है कि पंडित नेहरू की नीयत के बारे में कुछ नहीं कहूंगा लेकिन, उनकी नीति बहुत साफ थी। उनके के अनुसार पंडित नेहरू ने कहा था कि, तिब्बत की निर्वासित सरकार को हम राजनैतिक तौर पर स्वीकार नहीं कर सकेंगे, लेकिन हां, तिब्बत की आजादी के संघर्ष को जीवित रखना चाहते हो, तो अपने बच्चों को शिक्षित कीजिए, ताकि वो आपकी संस्कृति को जीवित रखेंगे। जिग्मे के मुताबिक, स्कूलों में भारत सरकार का बहुत बड़ा योगदान है। भारत और नेपाल में स्थित करीब 73 तिब्बती स्कूल-कॉलेजों में 25 हजार बच्चे पढ़ रहे हैं और महाविद्यालयों में 500 गे्रजुएट विद्यार्थी प्रतिवर्ष निकल रहे हैं, जबकि तिब्बत में चीन इतने विकास के बड़े वादे करता है, रोजगार की बात करता है, फिर भी यहां साक्षरता प्रतिशत 25 से भी कम है।  

तिब्बत मसले पर भारतीय संगठनों का पूरा सपोर्ट

भारतीय संगठन तिब्बत मसले को लेकर हमारा भरपूर सहयोग कर रहे हैं। भारत-तिब्बत सहयोग मंच की 18-19  शाखाएं, भारत-तिब्बत मैत्री संघ की 25-28 शाखाएं, लद्दाख से अरुणाचल में फैले हिमालयन एक्शन कमेटी फॉर पीस इन तिब्बेट की  8-9 शाखाएं, नागपुर से संपूर्ण महाराष्ट्र में फैली अमेरिकन विचारधारा के संगठन नेशन कैंपन फॉर फ्री टिबेट, अंतर्राष्ट्रीय भारत-तिब्बत सहयोग समिति मेरठ , इंटरनेशल यूथ फोर फ्रंट टिबेट हरियाणा के हजारों सदस्य एक आवाज पर तिब्बत के साथ आने को तैयार रहते हैं। वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचारक इंद्रेश कुमार द्वारा बनाया गया भारत-तिब्बत सहयोग मंच संगठन ने भी तवांग यात्रा समेत देशभर में संगोष्ठियां शुरू कर चीन पर कूटनीतिक दबाव डालना शुरू कर दिया है, जो निश्चित ही हमें हमारा लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होगा। 


साक्षात्कारकर्ता - नीरज चौधरी
संपर्क संख्या - 09425724481

Monday 26 January 2015

कुर्सी से उठने नहीं देती 'बेबी'

                                   नीरज 

र्शकों की नब्ज़ के जानकार फिल्म के निर्देशक, निर्माता और लेखक नीरज पांडेय की 'बेबी' ने लंबे अरसे बाद दर्शकों को फिल्म के अंत तक सिनेमाघर की कुर्सियों पर थमे रहने को मज़बूर कर दिया । 'ए वेडनस-डे' और 'स्पेशल-26' जैसी धांसू फिल्मों से बॉलीवुड में अपना लोहा मनवा चुके नीरज ने एक बार फिर आतंकवाद के विरुद्ध छिपे हुए हिस्से को बेहतरीन ढंग से उजागर कर अपने निर्देशन कौशल को बख़ूबी से प्रदर्श‍ित किया है। देश के जांबाज़ों की कहानी पर बनी 'बेबी' फिल्म में सीक्रेट मिशन है, एक्शन है, जुनून है, नफरत है और नापाक साजिश है। बीच-बीच में हंसी के फुहारे भी हैं, पर गाने दमदार नहीं । 

                                           
फिल्म 'बेबी' को आलोचक भले ही 'डी-डे' सिक्वल कह रहे हों, पर इसमें कलाकार, स्क्रिप्ट और संवाद अदायगी का चयन बहुत उम्दा तरीके से किया है। मसलन फिल्म वह सीन जिसमें गृहमंत्री से 'बेबी' टीम के ऑफिसर फिरोज (डैनी) अपनी  पूछने के लिए आता है कि दूसरे देश से आतंकवादी को गुपचुप तरीके से पकड़ने के लिए अंडरकवर ऑफिसर अजय सिंह राजपूत (अक्षय कुमार) को परमिशन दी जाए। मंत्री पूछते हैं कि यदि अजय पकड़ा गया तो? फिरोज अपनी दमदार आवाज़ में कहता है ''हम बोल देंगे कि हम इसे जानते ही नहीं है। फिर मंत्री पूछता है कि, तुम इसके मुंह पर ऐसा क्यों कहते हो। तब फिरोज़ (डैनी) का ज़बाव- मंत्री जी, मिल जाते हैं कुछ ऑफिसर्स हमें, थोड़े पागल, थोड़े अडि़यल। जिनके दिमाग में सिर्फ देश और देशभक्ति गूंजती रहती है., ये देश के लिए मरना नहीं चाहते बल्कि जीना चाहते हैं, ताकि आख़िरी सांस तक देश की रक्षा कर सकें।'' ऐसी संवाद अदायगी कहीं न कहीं हर दर्शक वर्ग में देश भक्ति का जोश और जूनून पैदा करती है। इसके अलावा हंसी की बौछारों की बात करें तो मंत्री का सचिव गुप्ता के थप्पड़ वाला सीन दर्शकों को गुदगुदाने में कोई क़सर नहीं छोड़ता एवं संदेश भी देता है कि, जांबाज़ जवानों की शहीदी को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। वहीं, फिल्म में नायक अजय (अक्षय कुमार) की पत्नी अंजली (मधुरिमा तुली) का वह संवाद जिसमें वह बार-बार कॉल करने पर अपने पति से कहती है-'बस, मरना मत।', श्रंगार और हास्य रस का मिला-जुला साक्षात उदाहरण है। 

                                            

कहानी :-

चुनिंदा ऑफिसरों ने मिलकर पांच वर्ष का एक मिशन बनाया गया है जिसका नाम है 'बेबी'। ये लोग आतंकवादियों को ढूंढ उन्हें मार गिराते हैं। 'बेबी' फिल्म उनके अंतिम मिशन के बारे में हैं। इस यूनिट का हेड फिरोज (डैनी) के नेतृत्व में अजय सिंह राजपूत और उसके साथी ओम प्रकार शुक्ला (अनुपम खेर), जय सिंह राठौर (राणा दग्गुबाती), प्रिया सूर्यवंशी (तापसी पन्नू) इस मिशन के मुख्य सदस्य हैं। 'बेबी' टीम इंडियन मुजाहिदीन का खास बिलाल खान (केके मेनन) का पीछा करती है, जो मुंबई से भाग सऊदी अरब पहुंच गया है। बिलाल भारत के बड़े शहरों में दीवाली के मौके पर खतरनाक घटनाओं को अंजाम देना चाहता है। एक सीक्रेट मिशन के तहत बेबी की टीम उसके पीछे सऊदी अरब पहुंच जाती है और बिलाल को मारने के साथ ही उसके आका सईद रहमान (रशीद नाज़) को भी कठिन परिस्थ्‍िातियों में भारत ले लाती है। 


किरदार :-

फिल्म के आलोचकों का मानना है कि वास्तविक घटनाओं से प्रेरणा लेकर वे थ्रिलर गढ़ने वाले निर्देशक और फिल्म के लेखक नीरज पांडेय ने 'डी-डे' फिल्म की  भांति 'बेबी'  में  भी इस समय के कुख्यात आतंकी हाफिज़ सईद को लेकर फिल्म बनाई है। विदित हो कि बॉलीवुड की एक और फिल्म 'डी-डे' में भी दाऊद को पकड़ने की योजना को लेकर बनाई गई फिल्म थी। इसमें पाकिस्तानी कलाकार रशीद नाज़ का किरदार सईद से प्रेरित था। वहीं, फिल्म के मुख्य अभ‍िनेता अक्षय कुमार ने अपने किरदार को बख़ूबी निभाया है। 'ख‍िलाड़ी' नाम से ख्यात अक्षय ने इस अंडरकवर ऑफिसर के रोल बड़ी ही गंभीरता के साथ जिआ है। लेकिन देखने में आया कि अक्षय पर ही पूरी फिल्म टिकी रही। उनके मुकाबले अन्य कलाकारों को कम बहुत कम तबज्जों दी गई। राणा दग्गुबाती का रोल तो 'हल्क' यानि बच्चों के ख़तरनाक कार्टून जैसा लगा, जिसे केवल शरीरिक सौष्ठव का प्रदर्शन हेतु रखा जाता है, न कि सवाद अदायगी के लिए। हां, पर इतना है क‍ि फिल्म में छोटे-सा रोल मिलने पर भी नवोदित अभ‍िनेत्री तापसी पन्नू ने अपने किरदार का असर ज़रूर छोड़ा है। तापसी और अक्षय के बीच का नेपाल में वसीम खान को उठाकर लाने वाला घटनाक्रम फिल्म का एक बेहतरीन और एक्शन हिस्सा है। अनुपम खेर की भले ही फिल्म के क्लाइमैक्स में एंट्री हो लेकिन मंजे हुए कलाकार का नाम ही काफी है। अक्षय की पत्नी बनी मधुरिमा तूली के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, सिवाय हल्के हंसगुल्ले वाले संवादों के।  


देखने में आता है कि ज़्यादातर फिल्मों की सफलता का श्रेय फिल्म के नायक-नायिका और खलनायक ही ले जाते हैं, लेकिन फिल्म के निर्देशक, निर्माता और लेखकों को गिने-चुने आम दर्शक जान पाते हैं। पर बॉलीवुड के एक ऐसे ही फिल्म निर्देशक, निर्माता और लेखक नीरज पांडेय को अपनी नवनिर्देश‍ित फिल्म 'बेबी' के उम्दा, बेहतरीन निर्माण के लिए चहुं ओर से प्रशंसा मिली है।  


क्यों  देखें  'बेबी ' को
फिल्म दर्शकों को कुर्सी से हिलने न देने के लिए मजबूर कर देती है। इसका ख़ास कारण है कि फिल्म की दमदार पटकथा और कलाकारों का दमदार अभ‍िनय । और इसके अलावा सबसे ख़ासबात है- गानों की कम संख्या, फिल्म में केवल दो ही गाने हैं। हालांकि, बाकी समय की स्क्रिप्ट क़बिलेतारीफ है क्योंकि फिल्म में जो सस्पेंस बना र‍हता है, वह दर्शकों में तीव्र उत्कंठा, उत्सुकता और व्यग्रता पैदा करने वाला होता है, जिससे दर्शक अपनी*अपनी तशरीफ कुर्सी पर टस सेमस भी नहीं कर पाते। इन सब बातों के अलावा फिल्म के मॉरल की बात करें तो 'बेबी' आतंकवादियों और खुफिया अफसरों के बारे में यह दिखाती है कि किस तरह सीमापार के लोग हमारे देश के नागरिकों को उनका हथियार बना रहे हैं। वे हमारी सरकार के खिलाफ खास समुदाय के लोगों के मन में संदेह पैदा कर रहे हैं ताकि उनका काम आसान हो, और तो और न जाने कितने ही ऐसे जांबाज़ अफसरों के त्याग-तपस्या और बलिदान के कारण हम चैन की नींद ले पाते हैं।  
फिल्मी ख़ामियां 

फिल्मी आलोचकों और समालोचकों के नज़रिए से देखा जाए तो 'बेबी' की पटकथा कितनी भी ठीक हो लेकिन कुछेक वह जगह ढीली हो जाती है। मसलन, अल-देहरा जैसे अरबी देश में भारतीय अफसरों की टीम को मिलने वाला हर व्यक्ति हिन्दी में बता कर लेता है और मुंबई की जेल में बंद बिलाल, सत्तर-अस्सी के दशक की फिल्मों की भांति आसानी से मुंबई से भाग निकल आता है। वहीं, अल-डेरा जैसे देश में पहुंचते ही प्रेम प्रकाश् शुक्ला आनन-फानन रिसॉर्ट की पूरे बिजली सिस्टम को हैक कर लेता है। 'ए वेडनस-डे' और 'स्पेशल-26' फिल्मों के लेखक नीरज पांडेय ने स्क्रिप्ट को कसा हुआ रखा है, लेकिन थोड़ी-बहुत एडिटिंग में लंबा ख‍िंचाव है। मसलन, फिल्म के शुरूआत में इस्तांबुल पहुंच कर अजय का अपने साथी को आतंकियों से छुड़ाने वाला हिस्सा और क्लाइमेक्स में बिलाल को रिसॉर्ट में उड़ाने का ऑपरेशन फिल्म की कहानी के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितने फुटेज इसमें दिखाए   गए हैं। 
व्हीं, सऊदी अरब में जिस तरह से अपने मिशन को 'बेबी' ग्रुप अंजाम देता है उस पर यकीन करना मुश्किल होता है। हालांकि भारत सरकार की ओर से उन्हें पूरी मदद मिलती है और इसके जरिये फिल्म के निर्देशक ने ड्रामे को विश्वसनीय बनाने की पुरजोर कोशिश भी की है। इन खामियों के बावजूद नीरज रोमांच पैदा करने में सफल रहे हैं।  

अंत में, फिल्म के सभी पहलुओं पर ग़ौर किया जाए तो 'बेबी' अक्षय कुमार की पिछली कई फिल्मों की तुलना में क़ाबिले-तारीफ है। लंबे समय से अक्सर हास-विनोद की फिल्मों में अक्षय कुमार बहुत दिनों बाद अपने पुराने रूप यानि एक्शन में वापस लौटे तो पर्दे पर छा गए हैं। संक्षेप में कहें तो फिल्म फुल-टू पैसा वसूल है, तभी तो सोमवार तक 36 करोड़ की कमाई कर चुकी है।


Monday 19 January 2015

बॉलीवुड के 'तेवर' में चंबल की गज़क








तेवर फिल्म के 'मैडमिया' गीत में ही हैं बोल- अरे स्माईल मलाई है तेरी, स्टाईल है गज़क....नरमी भी गरमी भी तू बड़ी गज़ब'










'तेवर' फिल्म के एक गीत के बोल "'अरे स्माईल मलाई है तेरी, स्टाईल है गज़क....नरमी भी गरमी भी तू बड़ी गज़ब'' से याद आया कि, शायद ! उसी गज़क की गर्मी और नरमी की बात हो रही है जो चम्बल के पानी से तैयार होती है। उस पानी की तासीर ही ऐसी है कि, जिसने भी पीया उसने पानी की गर्मी का असर कही न कहीं दिखा दिया। चाहे वह स्वतंत्रता का आंदोलन हो या बीहडों में बागियों की दहाड़। इसीलिए बॉलीवुड ने भी चम्बल के नकारात्मक पहलू को दिखाकर वाहवाही लूटी। इसी मायानगरी ने अब, मुरैना की गजक का जिक्र तेवर फिल्म के गाने में कर चम्बल की सकारात्मकता को देश में प्रदर्शित करने का कार्य किया है। 


मुरैना की ख़स्ता, ताज़ा गज़क
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बात अब छिड़ ही गई है तो बता दें कि, चम्बल के पानी से बनने वाली गजक सर्दियों में गर्म तासीर के कारण कुरकुरी खस्ता होती है। चम्बल की गज़क विदेशों तक अपनी पहचान स्थापित करने में कई दशकों से कामयाब हुई है। चम्बल के पानी की तासीर कितनी गर्म है इसे फिल्मी पर्दे पर 6 दशकों सें देशवासी देख रहे हैं। इस नकारात्मक पहलू को अन्तर्राष्ट्रीय धावक पानसिंह तोमर जो बाद में बागी हो गया, कि फिल्म में सकारात्मक रूप से दिखाया गया। इसी पानी से बनी गज़क दशकों से विदेशों तक अपने खस्तापन से यादगार बनी रहती है।
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तस्वीर में गज़क बनाते हुए कारीगर                                             फोटो : साभार
गज़क के विभ‍िन्न प्रकार                                             फोटो : साभार
गजक बनाने वाले पुराने कारीगर लखन का कहना है कि, चम्बल के पानी से ही इसकी गुणवत्ता बेहतर होती है। देश में अन्य किसी स्थान पर गज़क की गुणवत्ता चम्बल जैसी नहीं बन पाती। यहां क्वालिटी की गजक बनाने वाला भी देश के अन्य राज्यों में निर्मित करने पर गजक की गुणवत्ता नहीं दे पाता। पानी की गर्मी इतनी अधिक गजक में होती है कि, 'गर्मी के दिनों में यह गजक पिघल जाती है।' चंबल नदी के किनारे बसे मुरैना शहर में बनने वाली गजक का इतिहास लगभग 80 साल पुराना है। आज गजक का व्यापार बडे़ पैमाने पर किया जा रहा है, मुरैना में ही लगभग छोटे बड़े 200 से अधिक लोग हैं जो गजक बनाने का काम करते हैं, और औसतन 100 किलो गजक हरेक व्यापारी एक दिन में तैयार कर बेच देता है। वहीं, मुरैना के अलावा उप्र, मप्र के कई जिलों में मुरैना के नाम से ही गज़क बेच कर व्यापारी कमाई कर रहे हैं। मुरैना की गजक न सिर्फ़ अंचल में बल्कि पूरे देश भर में यहाँ से तैयार होकर जाती है। देश-विदेशों में बसे लोग गज़क को मुरैना से भारी मात्रा में मंगवाते हैं। अगर, यह कहें की मुरैना शहर ने बंदूक, बोली और बीहड़ों के अलावा किसी और बात में नाम कमाया है तो वह गज़क उद्योग ही होगा। अनुमानत: मुरैना में एक दिन 25 लाख की गजक बिक जाती है। इन तथ्यों को गजक के कई वर्षों से व्यवसाय में लगे कमल भी स्वीकार करते हैं। गजक की महत्ता को अब फिल्मनगरी ने भी स्वीकार कर लिया है। इसीलिए हाल ही में आई फिल्म तेवर में ''मैडमिया'' आइटम सोंग में गज़क की गर्मी और नरमी का जिक्र किया है। इस फिल्म के गाने में गज़क को महत्व देकर चम्बल की सकारात्मक एवं गजक के कुटीर उद्योग को प्रसिद्धी दिलाने का कार्य किया है। 
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आज से 8 दशक पूर्व संक्राति पर्व से आरम्भ हुई गज़क गरीबों की मिठाई के रूप में विख्यात थी। तिल -गुड से कूट-कूट कर बनने वाली यह मिठाई अब गरीबों से दूर होती जा रही है। मंहगाई की मार तिल गुड, शक्कर, कोयला पर हो रही है। इसी से इसके निर्माता कारीगर प्रभावित हैं। यही कारण है कि मिलावट से दूर शुद्ध मिठाई के रूप में यह अमीरों की पसन्द बन गई है। बड़े-बड़े डिब्बे और कार्टूनों में यह अमीरों के घर पहुचने लगी है। हालांकि, यह देखना अभी बाकी है कि, आख़िर कब तक गज़क को भी मिठाईयों और मावा की तरह 'कैडबरी सैलीब्रेशन पैक' की नज़र नहीं लगती।

Friday 19 December 2014

सलकनपुर : अलौकिक और आनंदमय अवस्थिति



नीरज चौधरी 
इसे संयोग कह लीजिए या मज़बूरी। जहां तक मुझे याद है कि, मैं उमर के बाइस बरस में अगर कहीं घूमने गया हूं तो वो जगह धर्मिक स्थल ही रही होगी। बीते मंगलवार की रात को ही मित्र अमरेन्द्र का संदेश आया कि, तुझे कल हमारे साथ सलकनपुर के देवी मंदिर चलना है, वो भी सुबह 7 बजे घर से निकलना है। अब बात संदेश कम आदेश ज़्यादा हुई, इसलिए भोपाल से 70 किमी दूर सलकनपुर में देवी मंदिर जाने का कार्यक्रम तय करना पड़ा। बुधवार सुबह 6 बजे ही मेरे बहुमुखी प्रतिभा के धनी दूरभाष ने मुझे जगाने के लिए कंपन्न करना और गाने गाना शुरू कर दिया, लेकिन रज़ाई की  गर्मागरम दुनिया से बाहर की सर्दीले संसार में क़दम रखने का भी मन नहीं कर रहा था। फिर भी मुझे इतना पता था कि जिन आठ जवानों को यात्रा पर जाना है, वे कदापि पौ फटने के पहले नहीं जाग सकते। उसके बावज़ूद भी मैं उठ ही गया। निकलते-निकलते हम आठों साथी चार मोटरसाइकिलों पर सवार होकर साढ़े नौ बजे मध्यप्रदेश की राजधानी से निकल सके..जैसा कि पहले से विदित था।  वो तो अच्छा हुआ कि सुबह सात बजे जाने का कार्यक्रम तैयार किया, अगर नौ बजे का किया होता तो शायद ही भोपाल से निकल पाते, क्योंकि तब तक शाम हो चुकी होती।

खै़र, लंबे समय पश्चात् उस युवा तरुणाई ने अपनी उमंगों के साथ-साथ् गाडि़यों को भी तेज़ रफ़्तार देना शुरू कर डालीं। चंद मिनिटों में दूसरे जि़ले रायसेन की सीमा के मंडीदीप में पहुंच गए और कुछ ही पल में सीहोर जिले की सीमा में प्रवेश कर गए। सूनी रोड, उस पर हवा से बातें करतीं चार माटरसाईकिलें और चौतरफा प्रकृति का सौंदर्य अपने आप में अनोखा था। नागिन की तरह काली और लहराती हुईं सडकें सवार और सवारियों के मन को मोहने में कोई क़सर नहीं छोड़ रही थी और उन सड़कों पर स्वागत की मुद्रा में झुके हुए पेड़। वाह !! 
मां बिजासेन देवी, सलकनुपर   फोटो-नीरज

सलकनपुर गांव की बात करें तो यह मध्यप्रदेश के सीहाेर जिले की बुधनी विधानसभा के अंतर्गत एक गांव हैं। बुधनी विधानसभा से ही प्रदेश के मुख्यमंत्री श‍िवराज सिंह चौहान विधायक हैं। सलकनपुर में 800 फीट ऊंची पहाड़ी पर एक मंदिर स्थ‍ित है, इस मंदिर में मां बिजासन देवी विराजमान हैं।सलकनपुर में विराजी सिद्धेश्वरी मां विजयासन की ये स्वयंभू प्रतिमा माता पार्वती की है जो वात्सल्य भाव से अपनी गोद में भगवान गणेश को लिए हुए बैठी हैं. इसी मंदिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती और भगवान भैरव भी विराजमान हैं यानी इस एक मंदिर में कई देवी-देवताओं के आशीर्वाद का सौभाग्य भक्तों को प्राप्त होता है.

पुराणों के अनुसार देवी विजयासन माता पार्वती का ही अवतार हैं, जिन्होंने देवताओं के आग्रह पर रक्तबीज नामक राक्षस का वध कर संपूर्ण सृष्टि की रक्षा की थी. देवी विजयासन को कई भक्त कुल देवी के रूप में पूजते हैं. मां जहां एक तरफ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे जीवनसाथी का आशीर्वाद देती हैं. वहीं संतान का वरदान देकर भक्तों की सूनी गोद भर देती हैं. तभी तो देवी के इस धाम का महत्व किसी शक्तिपीठ से कम नहीं हैं.मां के इस दरबार में भक्‍त की कोई पुकार कभी अनसुनी नहीं रहती, राजा हो या रंक, मां सभी पर एक समान कृपा बरसाती हैं. भक्तों के बढ़ते हुए कदम जैसे ही इस धाम की परिधि को छूते हैं पूरा शरीर मानो मां भगवती की शक्ति से भर उठता है, क्योंकि ये वो जगह है जहां मां विजयासन सुंदर पहाड़ पर अपने परम दिव्य रूप में आसिन हैं. जगत जननी का ये वो धाम है जो जगत भर में सलकनपुर वाली मां विजयासन के नाम से प्रसिद्ध है.


 यहां से नर्मदा मैया का घाट भी महज़ 12 किमी की दूरी पर है। मंदिर की 800 फीट की ऊंचाई  तक पहुंचने के लिए दो रास्ते हैं। एक रास्ता 1400 सीढि़यों से और दूसरा 4 किमी की दूरी तय करके सड़क मार्ग से होकर मंजि़ल तक पहुंचाता है । हालांकि, भक्तों  के लिए रोप-वे भी प्रारंभ किया गया है।
मैं टॉवर से नीचे उतरते हुए    फोटा- रवि


बहरहाल, अपने मित्रों रवि, शैलेष, अमरेन्द्र, आकाश, विजेन्द्र, दुर्गेेश और राहुल के साथ जब रायसेन जिले की सीमा को पार करते हुए सीहोर जि़ले की सीमा में प्रवेश किया तो मोटरसाईकिलें चमचमाती सड़कों को देखकर तेज़ से भी तेज़ दौड़ने लगीं। बाइक तेज़ दौड़ाने का भी एक अपना  एक कारण था, क्योंकि  एक ट्रक हमें चैलेंजित कर रहा था। उस ट्रक पर पीछे लिखा था-''डिपर मत मार ज़ालिम, तमन्ना हम भी रखते हैं-तुम सत्तर चलते हो तो क्या, हम भी अस्सी चलते हैं।।'' फिर क्या...तेज़ गति से मेरी रामप्यारी (बाइक) भी दौड़ने लगी। लेकिन अचानक मैं देखता हूं कि, रास्ते में रेलवे क्रांसिग का फाटक बंद है। रेल के इंतज़ार में फाटक वाहनों को रोकने के लिए आड़ा आ गया था.. मैंने बाइक की रफ्तार धीमी की और एक लाेडिंग गाड़ी के पीछे रोक ली। लग रहा था जैसे बाइक भी रेल को धन्यवाद दे रही हो कि, बहन तेरे कारण मैं थोड़ा सांस भी ले पाई हूं, नहीं तो न जाने आज मेरा क्या हश्र करते ये कम्बखत, भोपाल से दौड़ाते ला रहे हैं। अचानक ही मेरी नज़र लोडिंग के पीछे लिखे अमर वचन पर पड़ गई। जिसे पढ़ने के बाद मैंने गंतव्य स्थल तक बहुत ही औसत गति से बाइक चलाई, क्योंकि उसके पीछे लिखा ही कुछ ऐसा था। वो अमर वचन थे-''धीरे चलोगे तो बार-बार मिलेंगे और तेज़ चलोगे तो हरिद्वार मिलेंगे।'' बस, फिर क्या धीरे चलने पर भी हम आठों रातापानी अभयारण्य के नज़दीक एक पहुंचे जहां एक ऊंचे टॉवर चढ़कर दुनिया को देखने की चेष्टा करने लगे। क़सम से  कोहरे से लिपटे सघन, आच्छादित, घने वनों को जब इतनी ऊंचाई से  निहारा तो नीचे उतरने का मन ही नहीं कर रहा था।



राजेन्द्र माहेश्वरी,      फोटो- नीरज

 इतने में राजेन्द्र माहेश्वरी नाम के सज्जन आए और कहने लगे कि आओ ! मेरे पीछे तुम्हें लंगूरों और बंदरों से मिलवाता हूं। जब हम उने साथ उस घने जंगल में पहंचे और देखते हैं कि, सैंकडों बंदर और लंगूर उस मानव से लिपटने को आतुर थे। इतना वात्सल्य, प्रेम, आत्मीयता शायद ही मनुष्य की मनुष्य के प्रति देखने को मिले, लेकिन उन जीवों का उस मानव के प्रति अटूट और अकूत स्नेह है। पूछने पर राजेन्द्र नाम के उस शख़्स ने बताया कि, ''मैं हर शनिवार को करीब 200 रोटियां इन बंदरों और लंगूरों को ख‍िलाता हूं। उन्होंने बताया कि, पिछले रविवार को मैं इन्हें रोटियां ख‍िलाने से चूक गया, क्योंकि इसी जगह (सड़क किनारे) दो बाघ आकर बैठ गए थे और यहां से बाघ का श‍िकार करके ले गए। इसलिए मैं दूर से देखता रहा।'' राजेन्द्र ने बताया कि, मैं पास में ही टाइगर रिसोर्ट में रहता हूं और आप मुझे फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो कर सकते हो घने जंगल में जंगली जीवों से प्यार करने वाला यह शख़्स संचार के साधनों से भी बाकायदा अद्यतन रहता है। यात्रा में करते समय हम पत्रकारिता के छात्रों को कुछ नया जानने की भी तीव्र लालसा थी। इसीलिए हमारी नज़र हर उस बात पर थी, जिससे कुछ नया सीखने और देखने को मिले।

मोबाइल चार्ज करने का सौर ऊर्जा चलित यंत्र   फोटो-नीरज

 इसी कड़ी में हमने सीहोर जि़ले के ही एक गांव केसलवाड़ा में एक झोपड़ी के बाहर सौर ऊर्जा से चलित एक चाइनीज़ यंत्र देखा, जो रात को उजाला भी देता है और मोबाइल भी चार्ज करता है। हम समझ चुके थे कि दुनिया बहुत आगे पहुंच चुकी है, इसलिए हम भी अब ज़्यादा समय बीच राह में व्यतीत न करते हुए आगे की ओर निकल पड़े। आख़िरकार, हम आठों मित्र अपने गंतव्य स्थल सलकनपुर पहुंच चुके थे। पार्किंग में अपनी मोटरसाईकिलें खड़ी करने के बाद एक मित्र ने दुकानदार से पूछा कि भैया, ऊपर चढ़ने के लिए कितनी सीढि़यां हैं।



अमरेन्द्र, राहुल, विजेन्द्र, आकाश, रवि, नीरज, दुर्गेश     फोटो- शैलैष


 दुकानदार,''भैया, चौदह सौ सी‍ढि़यां हैं।'' दुकानदार ने इतना कहा और सब दूसरे की तरफ देखने लगे। सोच रहे थे कि, कोई हिम्मत बंधाएगा या फिर चार किमी के सड़क वाले रास्ते से जाने का बोलेगा, लेकिन सब एक सुर में बोले - चलो, यार माता के मंदिर में तपस्या करके पहुंचेंगे तो मन्नत पूरी होगी। अब सीढि़यां चढ़ना शुरू हुए तो महज़ सौ सीढि़यों में ही सब जवानों की सांस फूल गई, लेकिन स्कूल-कॉलेज वाली प्रतियोगिता वाली भावना ऊपर खींचे जा रही थी। हर किसी में सबसे पहले ऊपर पहुंचने की जि़द। सीढि़यां भी टू-वे थीं। एक तरफ जाने और एक तरफ से आने की। एक-एक सीढ़ी चढ़ते वक्त़ अहसास हो रहा था कि जब इन पत्थर की सीढि़यों को चढ़ने में इतनी ताक़त, ज़ोर और दृढ़ता की ज़रूरत पड़ती है तो जि़दगी की सीढि़यां  चढ़ना कितना कठिन होगा। खै़र, तमाम मशक्कत के बाद हम 800 फीट ऊपर पहुंचे और देवीकेअलौकिक, अप्रतिम, अद्वितीय, अतिसुंदर स्थल देखते ही सारी हरारत-थकावट पल में मानो छू हो गई। मां के दर्शन के पश्चात् लंबी-चौड़ी पहाड़ी का मुआयना किया और पहाड़ी के पिछले हिस्से की तराई में हम आठों मित्र उतर गए, जहां भी एक शंकर जी कां मंदिर और सैंकडों लंगूरों की टोली आक्रमे मुद्रा में बैठी थी। वहां कुछ देर तस्वीरगिरी करने के बाद हम फिर उन्हीं सीढि़यों से नीचे उतरते हैं।


रोप-वे, सलकनपुर फोटो- नीरज           

रोप-वे, सलकनुपर       फोटो-  नीरज


 अब तो पैर लड़खड़ाने की मुद्रा में आ गए थे कि अचानक हमारे साथ नीचे उतर रहीं ऐ अनजान मोहतरमा रोप-वे को देखकर बोलतीं हैं कि- देखो ! लिफ्ट जा रही है।'' बस, फिर क्या सब लोग ज़ोर से ठहाका मार के हंसने लगे। रोप-वे नाम के शब्द से अनभ‍िज्ञ  मोहतरमा कुछ देर तक के लिए तो झेंप-सी गई पर बेफ्रिकी के अंदाज़ में अपने गति से नीचे उतरने लगी।

फोटो- राहुल 


 लोगों ने बताया कि, सीढि़यों से चढ़ने में करीब दो घंटे का समय लगता है, तो वहीं रोप-वे से पांच या आठ मिनिट में ऊपर-नीचे आ जाते हैं। भूख से व्याकुल तलाश सभी मित्रों को भोजन की तलाश रहती है। पहाड़ी के नीचे निशुल्क भंडारा लिखा हुआ ढाबेनुमा स्थान दिखता है। पूछने पर पता चलता है कि, यह भंडारा मंदिर के ट्रस्ट की ओर से ही दूर-दराज़ से आने वाले ग़रीब श्रद्धालुओं के लिए है। मंदिर को प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने भी पयर्टन स्थल घोषि‍त कर दिया है इसलिए इसका महत्व आप जान ही सकते हैं। निशुल्क भंडारे में आठों भूखे खाने बैठे तो वहां के रसोईयों ने बहुत प्रेमपूर्वक और सहृदयता के साथ भोजन परोसा। अब जैसे ही पेट में वज़न बढ़ा, वैसे ही सबने गाडि़याें को रफ़्तार देना शुरू किया और चंद घंटों में अपने भोपाल आ गए।।


कैसे पहुंचें सलकनपुर:-  भोपाल से सलकनपुर की दूरी क़रीब 70 किमी है। यहां से सड़क मार्ग से आसानी से   जा सकतेहैं।बताते हैं कि प्रसिद्ध बिजासेन देवी धाम सलकनपुर देश के 11 शक्त‍िपीठों में से एक पीठ है। यह सीहोर जिले के बुधनी विधानसभा के रेहटी तहसील के सलकनपुर गांव में स्थ्‍िात है। यहां से 35 किमी दूर होशंगाबाद है और करीब 12 किमी दूर आवली नर्मदा नदी का घाट है। 

सलकनपुर गांव में देवी मां विजयासेन की पहाड़ी का दृश्य